Wednesday 28 November 2012

मनन 
"सुख"...... आखिर है क्या ये बला ??...इसे कैसे परिभाषित किया जाये ?..या कैसे समझा जाये ??? या कैसे पाया जाये ???....और हम सुखी कैसें हों ??...या सुख कि प्राप्ति कैसे हो ???
आम मनुष्य सिर्फ कूप - मंडूक की भाँति जीवन व्यतीत कर , चला जाता है ....वह सुख सिर्फ देह और इन्द्रिय से प्राप्त होने वाले सुख को सर्वोच्य मान उसे भोगता चला जाता है.....उसे भगवत प्राप्ति की ना चाह है ना उम्मीद ...... मन्दिर  
-शिवालयों में उन्हें देख संतुष्ट हो जाया करता है.....क्यों कि वह उसी में लिप्त है ...और जीवन परयन्त्र रहता है......जहाँ शुद्धता अपने में लाना और समभाव में रहने की कोशिश में लगे रहने [कभी सफल -असफल ] की कोशिश भी एक तरह का सुख ही है..... जहाँ हम आत्म-शान्ति पा जाते हैं ......इसके लिए हमें अपनी सोच-समझ-विचार बदलने होंगे अर्थात उनका प्रारूप बदलना होगा ....अपने सुख  नए सिरे से परिभाषित करना होगा... .और उसे उत्तेजना में ना पा कर , समभाव में रहना सीखना होगा ....बेशक यह यात्रा कठिन अपितु कभी -कभी असंम्भव सी लगेगी ....और समय भी लगेगा , अपने को हाँकने में ....क्यों कि परिवर्तन लाने में समय लगता है.... यह किसी अबोध शिशु कि भाँति है.....जिसकी परवरिश में , धैर्य कि अति आवश्यकता होती है.....उसे सींचना होगा .....
मुझे तो लगता है कि यह एक पल कि मनस्थिति है....जहाँ आप को आपके शाश्वत होने के स्वरूप से परिचय हो जाये.....शान्ति मिलती है....सांसों का एहसान ना हो कर विलीनता का पूर्ण ज्ञान अर्थात एकाकार......जिसमें मन व्यापक हो उठे करूणा , प्रेम बन बहे  .....अश्रु , हृदय का मेल धो डालें , देह का एहसास ना हो कर आप अपनी आत्मा को सुन और समझ पायें ......कि आप को सच्चा सुख किस में मिलता है ????
मेरी बालकनी में इसी पल ...गौरियां...कबूतर...और अनेक पक्षी एक साथ चावल की कनकी चुग रहे है....पानी पी रहे हैं......और मुझे सुख कि प्राप्ति हो रही है......
.....प्रार्थना.......
यह मेरे विचार हैं....मेरी कोशिश जारी हैं...और इनके आधीन हूँ......
मनन 
"शमा" देना...[ forgiveness ] एक मन स्थिति है ....जब हमारी सोच , सामान्य स्थिति से ऊपर उठ जाती है |
जब हम ये सोचने लगें कि व्यक्ति वही काम करता है या उसे वही करना चाहीये जिसमें संतुष्टि पाए...और वही जीवन परयन्त्र करता भी है तो हमें किसी को माफ़ी देने का अधिकार ही नहीं है.....
क्या वह सुधर जाएगा ..? , क्या हम संतुष्ट हो जायेंगे...? 
अगर नहीं तो , व्यर्थ ही है.....
अगर हम समभाव में रहें , मन को शाँत रखें और सोचे कि वह तो आम इंसान है....ऐसे से क्या उम्मीद करना ...
....तो स्थिति बेहतर बेशक ना हो पर गिरेगी भी नहीं.......
मनन 
प्रेम-"भाव"...मन की वह सरल अवस्था हैं जहाँ ...मन अहं - रहित हो...समभाव से प्रत्येक प्राणी में , ईश्वर की प्रभुता मुस्कान भाव में होती और दिखाई है.....ये जितना देती है,उतना ही दुगने रूप में मिलती है...
भक्त का भाव ईश्वर से ऊँचा है और वह इसके बहुत आधीन हैं...........क्यूँ कि भक्त बिना भाव के हो सकता है पर ...भाव के बिना भक्त नहीं.....प्रभु भाव के ही भूखे हैं.....हमारी पौराणिक कथाएँ में इनका वणॆन है ....जहाँ भी भाव से बुलाया , तहाँ विराजे हैं....."हृदय से कि गयी प्रार्थना सुन ली जाती है".....यही इसका सत्य-प्रमाण है.....इसका अनुभव हम सभी को है......मेरा यही विश्वास है.......
....प्रार्थना......
मनन 
"बंधन"...ऐसा हो जिसमें आप तन-मन से स्वतंत्र हों .....जिसमें सोच , ख्याल, भाव , स्वीकृति , स्नेह , ममता , श्रद्धा , आसक्ति का भाव रहते हुए , आपके कर्म -सोच में दिखाई दे जाये....
तभी वह स्वीकारा जाएगा ...उसका मोल है...नए उड़ान है...नया स्वरूप है....प्रेम और आसक्ति मेल है और तभी वह सम्पूर्ण होगा.....
"बंधन"... परतन्त्रता नहीं वरन इंसान द्वारा इंसान को जीने देने का "अधिकार" है....
....प्रार्थना.......
मनन 
"दुःख"...तभी तक है , जब तक हम इसे या इससे होने वाली पीड़ा का स्वागत करेंगे ... 
और भूल जाते हैं कि जीवन इसके बिना और आगे भी है ..
जो कि हमारी सोच और कर्म में निहित है ...
उसी का होना हमारे जीवन और होने का परिचायक है...न कि उसे सहजना या उसके साथ जीना या चलना...
.क्यों कि तब वह आपके जीवन में गड्ढे खोदेगा...दिखेगा....या एहसास करायेगा...
इसलिए ऐसी स्थिति में उसका रास्ता बंद कर अपनी गति तेज कर लेनी चाहिए ....
और उसे बहुत पीछे छोड़ देना चाहिए ...जिससे वह आपकी बराबरी ही नहीं कर पाए ...
उसे उलटा कुंठित होने दो और आप अपनी मंजिल पा लो ....उचाईयों कि......
.....प्रार्थना....
मनन
"ईच्छाशक्ति "....मनुष्य को चलायमान रखती है अर्थार्त उसके जीवन को गति देती है और नवसंचार भी करती रहती है | यह बोध भी , स्वयं के होने का कराती है कि आप हो...यह भी तो जानना जरुरी या इसका एहसास कि आप विषय वास्तु ना हो कर एक ईश्वरीय स्वरूप हो, जिस का संचार ईश्वरीय माध्यम से होता है |अपनी शक्ति को ईश्वरीय , इच्छाशक्ति में बदल कर , 
उसको कर्म , सोच और विचार में बनाकर गति शीलता देना तभी उसका वास्तविक स्वरूप , हम में प्रकट होगा......कृष्ण कहतें हैं ... कि मैं सभी प्राणी - जीव जंतु में वास करता हूँ .....तो क्यों न खुद को और अपनी इच्छाशक्ति को सशक्त माध्यम बना कर ईश्वरीय औरा [aura] में , स्वयं को समाहित क्या जाये.....
.......प्रार्थना......
मनन 
"विश्वास "....यह मुझे , एक सतत चलने वाली प्रक्रिया लगती है और वह भी जीवन परयन्त्र......यह एक ऐसी नैया है जिसमें बैठ कर ही उसके होने ना होने पता लगता है.....वरन नहीं....कभी हम हार जातें हैं ...जीतते -जीतते और कभी जीत जातें हैं....हारते-हारते....यह भी एक मन:स्थिति जैसी है....बदलती ...रूकती.........खोती...पाती..और बहती है....और हाँ!!! धोखा भी है....जहाँ विश्वास नाम मात्र को है....नींव अच्छी
 ना होने पर....क्यों कि स्वाभाविक है....नींव अच्छी ना होने पर ...ढह जाएगी ही....स्वार्थ निकल जाने पर...पल भर नहीं टिकती ...कारागार नहीं है......
सबसे पहले इसका आधार मजबूत रकना होगा , जिसमें स्वार्थ न हो कर ..समय पर डटे रहना ....सबल सहारा बनने...वक्त पर काम आना ....अपनी मौजूदगी की उपस्थिति से मजबूती देना....आदि-आदि....तभी इसका अंकुर फूटता है....और वृक्ष बनता है.....फल अवश्य ही मीठा होगा....
विश्वास के बल पर ही कबीर ... सूर ...मीरा....आदि ने सद्गति पाई और भगवत प्राप्ति पाई.....इसलिए आशंका अंश मात्र भी नहीं है...कि वो घट-घट वासी है....यह हम इंसानों में भी बन और मिल सकती है....

घट-घट वासी , घट-घट- में बिराजे
नैया मेरी विश्वास पे तेरे चले
माँझी बन और पतवार सम्हाल
चाहे तो उतार या चाहे लगा पार
तू चाहे या ना चाहे कान्हा
मैं तो बिराजी तेरी ही धुन रमाये......
.......प्रार्थना.......
ना बिखरो तुम इस जीवन की पगडंडीयों पर 
ना चुरा सकेगा कोई तुम्हारे मन की सोच -विचार 
ना मिटा सकेगा तुम्हारे होने का वजूद - अस्तित्व 
ना हिला सकेगा तुम्हारे चित की शान्ति - चैन 
बस तू चल -चली ...चल ....डगर पर 
जीवन की सार्थकता लिए ....अपने हृदय में .....
......प्रार्थना ......