Thursday 31 July 2014

मनन.... "कृष्ण "…

"कृष्ण "…… 
कौन हैं ?.... क्यों हैं ?…कब हैं ?? क्या ये हैं भी ?…… 
कृष्ण तो एक विचारधारा है ..... जो प्राणीयों में प्रेमस्वरूप बहती है ....... वह निश्छल और शांत है ,उसकी उत्पत्ति मन से विवेक तक पहुँचती है यह अंतर्द्व्न्द नहीं अपितु फैलाव है स्वयं का सोच का और विचारों का ……कृष्ण तो विचारों का मनन कर सोच का स्तर उठा देने की प्रणाली है , जो आम इंसान को विशेष बनती है अच्छी सोच एवं विचार को जाग्रत करने वाली है ....
यह अनंतसुखाय की स्थिति है , जहां प्राणी अपनी ही प्रगति स्वयं से करता है , जो अपना दायरा मन से विस्तृत और तन से संकुचित चाहता है ,वह अपनी ही खोज में व्यस्त है जहां उसके प्रेम की सर्वव्यापकता फैलती है धीरे - धीरे .... जहाँ से वह आनंद की ओर उन्नमुख होता चला जाता है , यक कृष्ण की व्यापकता है जो उसे कमल बंनाने के लिए ध्यान के गहरे कुण्ड में छोड़ देती है एक तरह से हम सूरज मुखी हैं और सूर्य को देख खिलते और मुड़ते हैं , यह एक तरह से हमारा अंतर्मन का भी विकास जो हम में मनुष्यता का भी विकास करती है
कृष्ण तो धैर्य हैं अनुशासन हैं एकाग्रता हैं आदि आदि
कोमल हैं कृष्ण , ज्यों पूर्वाही बहे
श्यामल हैं कृष्ण , ज्यों बदरा छाए
निर्मल हैं कृष्ण , ज्यों करुणा बहे
प्रेमालु हैं कृष्ण , ज्यों शून्यता छाए
कृष्ण - प्रेम , तुम्हें तुम्हारे ही भावों की जांच कर उच्च उठा देते हैं |कृष्ण तो हमारे भावों की उच्च पराकाष्ठा हैं जिसमें हमने उन्हें जीवंत कर दिया है और हम उन्हें सरल भाव में सदा पाते हैं इसलिए उन्हें पाने का मार्ग सिर्फ सरलता और समर्पण है

तू क्या पायेगा उसे जो सरल नहीं ......
कृष्ण मुख देख
और सीख सरल भाव
ले सरल भाव मन – भर
देख कितने करीब श्याम सुन्दर

कृष्ण ..........अर्थार्त - प्रेम
प्रेम से समर्पण
सम्पर्पण से विश्वास
विश्वास से निश्छलता
निश्चलता से कोमलता ……
कोमलता से पावन
पावन से पवित्रता
पवित्रता से आराध्य
आराध्य से कृष्ण हैं
कृष्ण तो बस कृष्ण ही हैं ..............सम्पूर्ण भाव जो संतुष्ट है ......पूर्ण है ..........यह भाव अपने में पूर्णता लाता है यह मैंने अपने अनुभव से सीखा है
तुम पूर्ण हो ,तुमसे पूर्णता पायी
तुम प्रेम बन , ह्रदय में समाये
तुम धीर हो , तुमसे धीरता पायी
तुम मौन बन , वाणी में समाये
तुम ओज हो , तुमसे ओजस्विता पायी
तुम प्रकाश बन ,सोच में समाये
तुम कोमल हो , तुमसे कोमलता पायी
तुम शांत बन , चित्त में समाये
तुम बाल सखा हो , मित्रता पायी
तुम मेरे बन के , मुझ में ही समाये........

कृष्ण अपने भक्त को तृप्त रखतें हैं जहां वह भटकता नहीं वह अपने में योग्य और कार्य करते हुए हर कर्म में सफल , शांत हैं जहां पहुँच कर उसकी अपनी स्तिथियाँ अनुकूल हो जातीं है

तुमरे सिवा जाऊं किधर
अब ना रही रीति ये गागर
नित भरती नित तृप्त रहती
अपने ही कुंड में ये मीन रहती
अपने ही कुंज के कुंड में रखना
तुम ही मेरे मन में कमल से खिलना
राह फुहारती , बाट जोहती
पुष्प चढ़ाती , दीप जोड़ती
कर पाऊँ तेरी प्रार्थना
जीवन पर्यन्त " बन कर तेरी प्रार्थना
कृष्ण तो अनुभव हैं इन्हें सिद्ध नहीं करना वरन अपने को सरल कर , इनकी प्रतिमूर्ति बनना है ......
जित देखूं तिह पाऊँ
और क्या चाह पाऊँ
पा जाऊं तो तुझमें ही खो जाऊं
चित में ध्यान धरूँ , कर पा जाऊं
तल्लीन हो , तुझे पा जाऊं
लीन हो, तुझ में पा जाऊं .....

कृष्ण को पाना नहीं वरन उनमें खोये रहने की स्तिथि बेहतर है , तब आप उनमें जी रहे होते हैं यह ऐसी अवस्था है जैसे मेघ , सूखी धरा पर बरस रहें हों और वह तृप्त हो रही हो , उसका अंतर्मन पिघल रहा हो ......
कृष्ण तो अधीरता हरने वाले हैं मन की चंचलता ,चपलता और भटकन हरने वाले हैं ..... कृष्ण भक्ति में प्राणी मौन के संपदन पथ पर चलना सीख जाता है .....
सादगी से सम्पूर्णता
सम्पूर्णता सरलता
सरलता से योगी
योगी से एकाग्रता
एकाग्रता से तन्मयता
तन्मयता से समन्वय
समन्वय से मौन
मौन से धीरजता
धीरजता से सोच
सोच से विस्तृता
विस्तृता से भक्ति
भक्ति से प्रेम
प्रेम से स्वयं का विस्तार करना सीख जाता है यही तो कृपा है हरि की ..................
कृष्ण तो पीड़ा हरने वाले हैं उनका स्मरण मात्र से ही मन शांत होने लगता है कभी कभी पीड़ा बुद्धि हर लेती है पर ध्यान मनन और मौन से हम धीर धरते हुए शांत हो जाते हैं ...........
हर लेते हर पीड़ा मेरी
कितना शांत करते मन मेरा
कितनी भटकन को राह दिखाते
कितनी एकाग्र हो जाती
कितनी सरल हो जाती
मीठा मीठा प्रेम बहाती
बन कर तेरी प्रार्थना "

...... प्रार्थना……