Tuesday 16 August 2011

मैं

तुझसे और क्या माँगू  ?

जब मेरे नैनों का आँचल ही भीग जाता है...

तुझसे और क्या चाहूँ?

जब मेरी चाहत का प्याला ही छलक जाता है.....

तुझसे और क्या सुनूँ ?

जब मेरे ध्यान में तेरी, मौन की गूंजें भर जाती हैं....

तुझसे और क्या पाऊँ ?

जब मुझे स्वयं में ही खो जाने को जी चाहता है....

तुझसे और क्या अरज करूँ?

जब मेरा हृदय ही तेरे प्रेम से भर जाता है....
मेरे प्रभु!!!!
बंधन स्वीकार करो मेरा

जो रिश्तों से मुक्त हो,परे हो ....
जिसमें आत्मीयता की डोर हो,
जिसमें निष्कपटता के फूल खिले हों,
जिन्हें स्नेह-नीर से सींचा हों,
जिसमें मिलन की आस हो,
जिसको देख- गर्व समर्पण का हो.....

ऐसे बंधन से मैं तुम्हें बाँधना चाहूँ
यही है मेरा "रक्षाबंधन " है तुम्हें.....
मैं भी जी लेती हूँ ......

सपनो जैसे विशाल व्योम को देख,

धैर्य धर लेती हूँ धरा को देख,

अश्रु बहा लेतीं हूँ मेघ बन कर,

आवेगों को सामा लेती हूँ किनारे बन कर ....

यह सभी तुम्ही से तो सीखा है,

तुम्हारे पद-चिन्हों पर चल उन्हें गहरा देती हूँ......