Wednesday 11 May 2011

कान्हा ने ओढा पिला-पीताम्बर ,मैंने है नारंगी
     कभी तो मिलने की होगी आस पूरी .....

   कान्हा तो हैं सागर ,में तो हूँ गागर
         कैसे समाऊँ तुझे, तेरा स्नेह है अपार...

   जरा सा तुझे पाया ,मन तो इठलाया 
        पग-पग धीर न धरूँ, झलकता ही जाऊँ... 

    तुझे नजरों में भरूँ ,स्वयं को सबसे चुराऊँ
        मेरा ये कैसा दीवानापन है, तुझ में पाया जो अपनापन है....

   न सूझ रहा मुझे, किधर जा रही हूँ
       मालूम है मुझे, में सिर्फ तुझे पाती जा रही हूँ ....
        
तुझे पाया में इस तरह से कि.....

    मेरा मोल कहाँ रहा, मैं तो अनमोल हुई .....
    मेरा सुख  कहाँ रहा, मैं तो आनन्द  हुई....
     मेरा दुःख  कहाँ रहा ,मैं तो शांत  हुई....
     मेरा अँधेरा कहाँ रहा,मैं तो उजाला हुई....
       मेरा अस्तित्व कहाँ रहा, मैं तो भगत हुई......
     
मैं डूबी रहूँ प्रेम-सागर में और प्रेम-मग्न रहूँ भक्ति-भाव में...

     भक्ति की परत-दर-परत चढती रहे,
           प्रेम की प्रबलता मुझमें बढती रहे ....

    शान्त ह्रदय में  मैं सदा धीर धरूँ ,
          मौन के आनंद में सदा विचरूं ...