Saturday 17 July 2010

मेरा बचपन .....

मुझे याद
नहीं अपना बचपन
कुछ   पलों  के सिवा,
कुछ -भूला
कुछ -बिसरा
कुछ -चुप सा
था यह मन मेरा .....
कुछ  पलों  में खो भी जाऊँ
तो याद आता है
कि मैं चुप हूँ
और समय कि धारा बह रही है....
और हाँ !
माँ की  मेरे प्रति और मेरी उनके प्रति कुछ भावनाएँ,
मुझे डर कि वह कहीं गुम ना हो जायें .......
मैंने सदा अपने आपको अपने आप में ,
सिमटा पाया कुछ पलों के साथ ,
 जैसे सिमटे पड़े
कुछ  ओस  के मोती  ,
किसी वृक्ष की   डाली पर ....
मैं ,
ऐसी धूल
जो सदा ही फटकारी जाती है....
जो सदा ही पोंछ दी जाती है....
मेरा शिकवा
तुझसे मिलने के बाद ,
मेरी पहचान बन बैठा
और
मेरा मन
कुछ शाँत हो गया ....
हर फटकार पर मैं ,
छनती कहती चली गई और
मैंने अपने संग जीना सीखा...
यह मेरे जीवन की सीख ,अनुभूति
और तेरे प्रति मेरे अनुराग भी है....
मैं इस गहराई में और भी जाना चाहूँगी....
मैं,
मन के वीराने के
 मन्दिर की धूल बनूँगी
जो सदा तेरे चरणों पर सदा बिछी रहे.....