Sunday 17 February 2013


ये जो मन की तपन है
तेरी छुअन से ही शांत होती है ......
ये जो तन की बहती धारा है
तेरे सागर से मिल के ही तृप्त होती है.....
ये जो मन की भटकन है
तेरी कुञ्ज-गलियों में पग धरते ही मौन हो जाता है......
ये जो तन की धरा है
तेरे एहसास को पा "हरश्रंगार "बन स्वतः ही बरसने लगता है.....
........प्रार्थना ..........

जब मन मौन होना चाहे ...तब जीवन का अर्थ बदलने लगता है 
और जब प्रार्थनाओं में आँसू बहने लगे ....तब जीवन का अर्थ मिलने लगता है.....
.......प्रार्थना ..........
परछाई बन चलूँ सदा तेरे पीछे 
और ये मन अब क्या चाहे तुझसे ......
प्यासी बनी रहूँ सदा तेरे ही प्याले की 
और ज्यों-ज्यों पियूँ , ललक बढती ही जावे .....
कहा करूँ बस में नहीं मेरे , मन के पीछे जोगन बन सी फिरूँ ......
..........प्रार्थना .....