Thursday 26 December 2013

" वैराग्य से विरक्ति " या विरक्ति से वैराग्य "........

मनन ......कई बार इस पर ध्यान गया कि आखिर क्यों ...कैसे और कब ....यह भाव आ जाता या जाते हैं ....कई बार सुनने में आया कि बस ...वह वयक्ति चला गया ...कभी कमी ,कभी सब कुछ सामान्य और कभी सब कुछ भर - पूरा .....आखिर कैसी मन की कैसी मंत्रणा है जो ....परिस्थिति के अनुरूप न चल कर एकदम विमुख होता जाता है या चला जाता है .....
आखिर ये भटकन क्यों ???...ख्वाइशों का न पूरा होना ....पूर्ण रूप से हताशा या इतना उम्मीद से इतना अधिक होना कि उसके लिए जीवन में कुछ महत्व ही ना रहे ....
आखिर "वैराग्य " है क्या ...??? मन-तन -धन को छोड़ कर विमुख हो जाना ,......जरूरत से ज्यादा उपयोग में ना लाना है ...या अपनी सोच का दायरा ही बदल देना , जो जरूरतों के भावों को हवा ही ना दे .....यह भी तो एक रूप हो सकता है .....
" विरक्ति "....शायद जो अच्छी ही ना लगे ,.... जिसकी इच्छा या कामना ही ना रहे ....या उसकी जीवन में आवश्यकता ही ना रहे ...तो स्वाभाविक है कि उससे प्रेम ....अभिलाषा ...कामना ...इच्छा ...और या विश्वास ही ना रहे तो शायद विरक्ति हो जायेगी ......
पर हम तो साधारण इंसान ही हैं और माँ - पिता बनते ही भावों के भंवर में उलझ जाते हैं ....बंधन में .....पर इस राह पर भी चलते हुए ...राहें... भटक जाती है .......तो क्या भटकन अच्छी या बुरी जिम्मेदार है ....फिर अच्छे या बुरे का प्रारूप भी अलग-अलग मायनों में अलग है ....परिभाषाएं भी अलग है ...और मापदंड भी.......तो फिर क्या ?????
[बस यूँ ही एक विचार कुछ कौंधता - सा..हुआ ....]
....प्रार्थना .....

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