Tuesday 7 May 2013


मनन ......
" स्त्री ".......इतना लिखा .....कहा ....और सुना जा चुका है कि शब्द अब खोजने पड़ेंगे पर , मुझे लगता है कि लिखने और पढ़ने से ज्यादा समझने की आवश्यकता है और वो भी एक"स्त्री " को , दूसरी "स्त्री " को .......
मुझे लगता है कि इसके भी रिश्तों के आधार पर अग्रसर होते हुए , इसके भी मायने बदल जातें हैं ......माँ के रूप में कुछ और सास के रूप में कुछ ......, बहिन के रूप में कुछ और भाभी के रूप में कुछ ....., बेटी के रूप में कुछ और ननद के रूप में कुछ ...आदि-आदि .......माप दंड क्यों अलग ...अलग हैं ......जिम्मेदारी-कर्तव्य-फर्ज ....कहीं एहसान और कहीं ख़ुशी के साथ करने में बंध जाते हैं ......
हम "स्त्रियाँ " इन सब से अपने को ऊपर क्यों नहीं उठा पातीं ......हम स्वीकारना नहीं आता ......कहीं हम सिर्फ " मैं और हमारे "... में तो नहीं बंध गए ........निश्चय तौर पर हमें अपनी सोच और कर्म की विस्तृता बढ़ानी ही पड़ेगी , नहीं तो जो कल था वो आज हमें नसीब नहीं है और जो आज है ...वो कल हमारे रूप की हमारी ही ..... [बेटियों ] को नहीं मिलेगा ........
" स्त्री तू बस अन्दर और बाहर करुणा की फुहार ही करती रह ,
तुझे अपने आप खोना नहीं वरन खो के ही है ....पा जाना ......अपना स्त्रीत्व ना खोना ......
तेरा यही रूप अद्वतीय ...अमूल्य ...अदभुत ......अतुल्यनीय है " ........
[ बस यूँ ही एक विचार ....]
...........प्रार्थना ............
 

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