Wednesday 17 August 2011

मैं,
हूँ राह का पत्थर
हर राहगीर ठोकर मार
बढता मंजिल ओर....

मैं,
लुढकती-ठुलकती
इधर-उधर भटकती
न जाने किस ओर....

मैं,
टूटती-फूटती
झर-झर हुई
जा पहुँची कान्हा ओर....

मैं,
समझ ना पाई
क्यों लुढकाई गई
क्या ऐसे ही आते हैं तेरी ओर...

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना ,..

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  2. बेहतरीन प्रस्तुति

    अगर आपको प्रेमचन्द की कहानिया पसंद हैं तो आपका मेरे ब्लॉग पर स्वागत है |
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