Friday 28 June 2013

मनन ....
" मुक्ति ".... का बहुत ही विस्तृत अर्थ है ....तन-मन-धन से ....और सोच से समय से परे .....
संसार में रहते हुए भी इंसान मुक्ति की खोज और मुक्त रह सकता है लेकिन तब सिर्फ और सिर्फ सोच के द्वारा अपने मन को समभाव में रखकर ...आप किसी भी विषम परिस्थिति में रहतें हों , अगर आप कोशिश करें , मुश्किल है कभी नामुमकिन भी ...पर किसी से बंधे नहीं और चलते चलें ....राहगीर की भाँति ...की बस चलना ही परमोधर्म और सर्वोपरि है .......जब तक हम सोच से बँधे हैं तब तक हम गुलाम है ...आसक्त हैं ...आधीन हैं ....मोह के ...इच्छाओं के .....और हम सिर्फ एक जीव हैं जो आया -गया है ....बिना द्वंद के ....सोच के ....." मुक्त ' आप मृत्यु से नहीं वरन सोच से हो जाते हैं ......इंसान मन से नहीं मन से म्रत्यु प्राप्त करता है , तन से नहीं ...म्रत्यु तो साँसों या प्राण के आधीन है .....म्रत्यु पर विजय पाना आसान है अर्थात जब आयेगी , आप को हर हाल में स्वीकारना ही है चाहे चाहो या ना चाहो .....आप को विजय होना ही है ......पर सोच पर नहीं यह एक प्रक्रिया है , जिस के हम आधीन और लिप्त हैं .....सोच तो जीवन परयन्त्र चलने वाली प्रक्रिया है ...गतिविधि है ....जिसे हम निश्चित करते हैं .....यही एक कर्मठ मुक्ति मार्ग है .....हम इसी के साथ जीते हैं ...मारतें हैं .....अच्छा या बुरा बनाते या बनते हैं .....
म्रत्यु सोच पर निर्भर है ..और मुक्ति सोच पर आश्रित है ......म्रत्यु तन से और मुक्ति मन से .....ध्यान में जब सांस रहित हो कर और एकाकार होने लगे तो वह स्थिति तन-मन से मुक्ति ही की अवस्था है ....जहां हम सोच से गति पा जातें हैं और वह सोच तन-मन से मुक्त है .....
यह मुक्ति की सवश्रेष्ठ अवस्था है जहां इंसान बन्धनों से मुक्त है चाहे वह तन-मन-सोच से हो ......
[ बस यूँ ही एक विचार .....]
......प्रार्थना

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