मैं,
हूँ राह का पत्थर
हर राहगीर ठोकर मार
बढता मंजिल ओर....
मैं,
लुढकती-ठुलकती
इधर-उधर भटकती
न जाने किस ओर....
मैं,
टूटती-फूटती
झर-झर हुई
जा पहुँची कान्हा ओर....
मैं,
समझ ना पाई
क्यों लुढकाई गई
क्या ऐसे ही आते हैं तेरी ओर...
बहुत सुन्दर रचना ,..
ReplyDeleteSunder Panktiyan
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
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