मनन ....
" रिश्ते "....इन के बारे में तो अनेक धारणा - अवधारणा गाढ़ी ही जा चुकीं हैं ....क्या कहें ...पर जैसे सभी कहतें हैं कि इन्हें पाला ... , सजोंया ... , निभाया ... , बनाया ...., बोया ....,जाता है ....क्या रिश्ते भी या रिश्तों को दिमाग के अनुकूल उनमें या उनकी उठा-पटक , ऊपर - नीचे , आगे -पीछे , आगे - पीछे , कम - ज्यादा ....किया जा सकता है ....मेरी तो समझ से परे है ........या जो किया करते हैं वो रिश्ते मन से नहीं अपितु , दिमाग से ...चालाकी से ....जरुरत के हिसाब - किताब कर के खुद समझते और समझाते हैं .....इनको अगर आपसी विश्वास ....समझ .....से परख कर सींचा जाये तो बेहतर जाये ......वरन गुलाब तो किताबों में भी मिलते हैं पर महकते नहीं .....सिर्फ याद और दिखने भर के .....पर असली को तो सिर्फ कुछ देर पकड़ने पर भी ...हथेली को महका जाते हैं .......और मन की कली महक जाती है .......बस यूँ ही एक विचार .....
[ वैसे भी आजकल बुफ्फे का जमाना है .....जिसे मन चाहा उठाया .....पूरी थाली परोसने का नहीं .....कि आपको खाना या फिर थोडा बहुत चखना ही पड़े ....]
...........प्रार्थना ......
बहुत सच है..पर आज रिश्ते निस्वार्थ कहाँ रहे हैं...
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