ये जो मन की तपन है
तेरी छुअन से ही शांत होती है ......
ये जो तन की बहती धारा है
तेरे सागर से मिल के ही तृप्त होती है.....
ये जो मन की भटकन है
तेरी कुञ्ज-गलियों में पग धरते ही मौन हो जाता है......
ये जो तन की धरा है
तेरे एहसास को पा "हरश्रंगार "बन स्वतः ही बरसने लगता है.....
........प्रार्थना ..........
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