मनन ......
" ईश्वर ".....क्या है ....क्यों है ....कहाँ है......यह प्रश्न तो हमारे मन में आने पहले भी चिर काल से चला आ रहा है .....यद्धपि ये खोज अभी निरंतर जारी है .....पर इसका प्रारूप बदल दें तो जयादा समझ पायेंगे .....
" ईश्वर " कोई गगन के परे सिंहासन पर विराजमान मात्र प्राणी नहीं है वरन एक ऊर्जा के स्त्रोत है ....जिसका और जिसे हम महसूस कर सकते हैं स्वयं में ....एक तरह से उसका संचार हमारे माध्यम से होता है ......और यह हमारे ही द्वारा अभिव्यक्त और विस्तृत रूप लेता रहता है ......और हम रम जाते हैं.......कोई संत - गण तेजोमय होता है उसकी संगत से शीतलता क्यों बरसती है ....ओर कुछ इंसानों से भी यही झलकता है .......आखिर क्यों हमें उनसे डर नहीं लगता ???....क्या है उनमें ??
"डर " से याद आया कुछ लोग डर - भय से आस्तिक हो जाया करते हैं , ये करो नहीं तो ?? वो करो नहीं तो ?? इतने व्रत करो नहीं तो आदि - आदि .....[ वैसे तो डर हमें गलत कार्यों से बचाता भी है ...एक फायदा तो है ही ........] किसी भी सद-ग्रन्थ में ऐसा व्य्खायन नहीं है .....व्रत हमारे सयंम और अनुशासन के लिया बनाये गए हैं जिससे हमारा जीवन सुचारू रूप से चल सके और हम आस्थावान जीवन परयन्त्र बने रहे ...हमारी भी.....पीढीयां भी ....
खैर बहुत सी बातें है ...विचार विमर्श चलते आयें हैं और आगे भी चलते ही रहेंगे.....यह कोई बहस का मुद्दा नहीं है .....एक सरल विचार है .....मेरे अनुरूप यह ज्ञान और आस्था का सम्मिश्रण है ......भाव है,.....विश्वास है ,.....श्रद्धा है ......मात्र है .....कभी हम उसे पूजा घर में सजा लेतें हैं ...और कभी इंसानों में खोजने लगते हैं.......कभी कभी भगवान इंसान हो जातें हैं और इंसान भी भगवान ......
[यह एक विचार ही है .....कृपा इसे यूँ ही बनाये रखें ....वैसे आपके विचारों का स्वागत है ......मुझे पड़ना अच्छा लगेगा ......]
...........प्रार्थना ...........
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