Wednesday, 12 September 2012

 मनन.....
"प्रेम" क्या है??आसक्ति है...भाव है....समर्पण है.... इच्छा है...कई बार मैने इस पर ध्यान  और मनन किया है...पर मैंने अब इसे ,इन सभी से परे पाया है| प्रेम को  अब  मैं ,एक सरल हृदय  की सरल भावना जैसा समझ पा रही हूँ......प्रेम ना तो पाना है ना ही खोने की भावना मात्र  है....यह आपकी सोच की पराकाष्ठा है ,जो आपके चेहरे पर मौन में संतुष्टि और सरलता का तेज ला देता है |आप कैसे जानेगें की आप किसी को प्रेम करतें हैं और वो आपको ,क्या यही प्रेम का दायरा है??? क्या पूर्ति प्रेम है??मेरे विचार से जब आप अहं छोड़ कर प्रेम या कोई अच्छा विचार किसी के लिए रखें , कष्ट में उसके लिए प्रार्थना करें  और दुःख में किसी का साथ दें ...यह असल में प्रेम है |....ईश्वर...अपना  प्रेम हमारा माध्यम बना कर  देते  हैं,नहीं तो आप किसी अनजान  के लिए क्यों  आँसू बहा देतें  हैं...या फिर  किसी की तकलीफ  देख  के आँसू क्यों आ  जाते  हैं.?? आप-हम  तो एक जरिया  मात्र  हैं....और हमारी  इन्द्रियाँ  उस  भाव को प्रकट  करने  का साधन  ..... आत्मा , भाव और सोच ये तीनो ही अलग हैं | आत्मा शुद्ध है न सोचती है ...न विचारती है...भाव, सोच के आधीन है और भाव, सोच के....|ये परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं और इस तरह का स्नेह और प्रेम पूर्णतया आश्रित है...आधीन है.....पर जो प्रेम अहं छोड़ कर किया गया हैऔर परिस्थितियों के अधीन  रहित है , वह संतुष्टि -मौन-ध्यान की पराकाष्ठा या ऊचाँई है....जहाँ समभाव है...जहाँ आत्मा का वास है.....सोच-भाव आदि से परे "विचार" है....और तब हम उसी के अनुसार कार्य करने लगते हैं....
                                                                                                                                                                                      आत्मा तो किसी की नहीं है पर तन में बँध कर सांसारिक हो जाती हैऔर तन इन्द्रियों के अधीन हो कर कार्यो में लिप्त है....पर आत्मा इनके अधीन नहीं है......तो क्यों ना आत्मा के अधीन हो कर स्वयं को पा लें .....
.......प्रार्थना..........

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