हृदय की बंजर जमीं पर,जब भक्ति की स्नेह वर्षा होती है तो कुछ अंकुर स्वतः ही फूट पड़ते हैं.....उन पल्लवों पर कुछ ओस की बूँदें भावना बन कर उभर जातीं हैं.....बस ये वही आवेग हैं......
Tuesday, 1 November 2011
मुझे तो लगता है..... बस तू तो है धरा सहती है...सहजती है... जननी है बन के बहती गँगा कि धारा सी कहाँ से उपजी और कहाँ अंत ... तेरा सिर्फ मौन ही स्वीकारा जायेगा क्यों कि तू माँ है तू बेटी है तू भार्या है तू बहन है....हर रूप में तू आश्रित है.....
हर रूप में तू आश्रित थी और है मगर अब आगे नहीं रहनी चाहिए , सच है धरती की तरह सबकुछ सहन करती है , तेरा कुछ भी बोलना किसी से सहन नहीं होगा और तेरा मौन ही स्वीकारा जायेगा , चंद पंक्तियों में बहुत गहरी व् सच बात
bahut sundar bhaw!!!!
ReplyDeleteअच्छे शब्दों का प्रयोग , भावों की सुंदर अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteसुंदर भावों और शब्दों से सजी खुबशुरत रचना,बेहतरीन पोस्ट....
ReplyDeleteहर रूप में तू आश्रित थी और है मगर अब आगे नहीं रहनी चाहिए , सच है धरती की तरह सबकुछ सहन करती है , तेरा कुछ भी बोलना किसी से सहन नहीं होगा और तेरा मौन ही स्वीकारा जायेगा , चंद पंक्तियों में बहुत गहरी व् सच बात
ReplyDeleteगहन भावों की सटीक और बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...
ReplyDeletethnx!!all....
ReplyDeleteमैं स्वयं को क्यों खोजती हूँ ???
क्या मैं अपने आप मैं सम्पूर्ण नहीं......
ये आश्रिता सर्वशाक्तिशालिनी भी है!
ReplyDelete