Friday, 8 August 2014

"यात्रा"
मैं यात्री हूँ ,
अभी सफ़र पर हूँ.....
हर सुबह नया सवेरा,
हर साँझ नई आस.....
हर पल से जूझती हुई, 
हर पल को खोजती हुई....
कशमकश के द्व्न्द को सोचती
फिर एक,मन की उड़ान भरती....
आ जाती हूँ,जीवन के धरातल पर,
मन के बोझ को हल्का कर....
हर नया यात्री कुछ सिखा जाता,
जो छूता वो मन में रह जाता.....
हर ठहराव तसल्ली दे जाता
और आगे बढने को कह जाता....
हाँ!!! मैं चलायमान हूँ
निरंतर चलना ही गति है.....
क्योंकि कि मैं "यात्री "हूँ
अभी यात्रा पूरी करनी है......
.....प्रार्थना....

Thursday, 31 July 2014

मनन.... "कृष्ण "…

"कृष्ण "…… 
कौन हैं ?.... क्यों हैं ?…कब हैं ?? क्या ये हैं भी ?…… 
कृष्ण तो एक विचारधारा है ..... जो प्राणीयों में प्रेमस्वरूप बहती है ....... वह निश्छल और शांत है ,उसकी उत्पत्ति मन से विवेक तक पहुँचती है यह अंतर्द्व्न्द नहीं अपितु फैलाव है स्वयं का सोच का और विचारों का ……कृष्ण तो विचारों का मनन कर सोच का स्तर उठा देने की प्रणाली है , जो आम इंसान को विशेष बनती है अच्छी सोच एवं विचार को जाग्रत करने वाली है ....
यह अनंतसुखाय की स्थिति है , जहां प्राणी अपनी ही प्रगति स्वयं से करता है , जो अपना दायरा मन से विस्तृत और तन से संकुचित चाहता है ,वह अपनी ही खोज में व्यस्त है जहां उसके प्रेम की सर्वव्यापकता फैलती है धीरे - धीरे .... जहाँ से वह आनंद की ओर उन्नमुख होता चला जाता है , यक कृष्ण की व्यापकता है जो उसे कमल बंनाने के लिए ध्यान के गहरे कुण्ड में छोड़ देती है एक तरह से हम सूरज मुखी हैं और सूर्य को देख खिलते और मुड़ते हैं , यह एक तरह से हमारा अंतर्मन का भी विकास जो हम में मनुष्यता का भी विकास करती है
कृष्ण तो धैर्य हैं अनुशासन हैं एकाग्रता हैं आदि आदि
कोमल हैं कृष्ण , ज्यों पूर्वाही बहे
श्यामल हैं कृष्ण , ज्यों बदरा छाए
निर्मल हैं कृष्ण , ज्यों करुणा बहे
प्रेमालु हैं कृष्ण , ज्यों शून्यता छाए
कृष्ण - प्रेम , तुम्हें तुम्हारे ही भावों की जांच कर उच्च उठा देते हैं |कृष्ण तो हमारे भावों की उच्च पराकाष्ठा हैं जिसमें हमने उन्हें जीवंत कर दिया है और हम उन्हें सरल भाव में सदा पाते हैं इसलिए उन्हें पाने का मार्ग सिर्फ सरलता और समर्पण है

तू क्या पायेगा उसे जो सरल नहीं ......
कृष्ण मुख देख
और सीख सरल भाव
ले सरल भाव मन – भर
देख कितने करीब श्याम सुन्दर

कृष्ण ..........अर्थार्त - प्रेम
प्रेम से समर्पण
सम्पर्पण से विश्वास
विश्वास से निश्छलता
निश्चलता से कोमलता ……
कोमलता से पावन
पावन से पवित्रता
पवित्रता से आराध्य
आराध्य से कृष्ण हैं
कृष्ण तो बस कृष्ण ही हैं ..............सम्पूर्ण भाव जो संतुष्ट है ......पूर्ण है ..........यह भाव अपने में पूर्णता लाता है यह मैंने अपने अनुभव से सीखा है
तुम पूर्ण हो ,तुमसे पूर्णता पायी
तुम प्रेम बन , ह्रदय में समाये
तुम धीर हो , तुमसे धीरता पायी
तुम मौन बन , वाणी में समाये
तुम ओज हो , तुमसे ओजस्विता पायी
तुम प्रकाश बन ,सोच में समाये
तुम कोमल हो , तुमसे कोमलता पायी
तुम शांत बन , चित्त में समाये
तुम बाल सखा हो , मित्रता पायी
तुम मेरे बन के , मुझ में ही समाये........

कृष्ण अपने भक्त को तृप्त रखतें हैं जहां वह भटकता नहीं वह अपने में योग्य और कार्य करते हुए हर कर्म में सफल , शांत हैं जहां पहुँच कर उसकी अपनी स्तिथियाँ अनुकूल हो जातीं है

तुमरे सिवा जाऊं किधर
अब ना रही रीति ये गागर
नित भरती नित तृप्त रहती
अपने ही कुंड में ये मीन रहती
अपने ही कुंज के कुंड में रखना
तुम ही मेरे मन में कमल से खिलना
राह फुहारती , बाट जोहती
पुष्प चढ़ाती , दीप जोड़ती
कर पाऊँ तेरी प्रार्थना
जीवन पर्यन्त " बन कर तेरी प्रार्थना
कृष्ण तो अनुभव हैं इन्हें सिद्ध नहीं करना वरन अपने को सरल कर , इनकी प्रतिमूर्ति बनना है ......
जित देखूं तिह पाऊँ
और क्या चाह पाऊँ
पा जाऊं तो तुझमें ही खो जाऊं
चित में ध्यान धरूँ , कर पा जाऊं
तल्लीन हो , तुझे पा जाऊं
लीन हो, तुझ में पा जाऊं .....

कृष्ण को पाना नहीं वरन उनमें खोये रहने की स्तिथि बेहतर है , तब आप उनमें जी रहे होते हैं यह ऐसी अवस्था है जैसे मेघ , सूखी धरा पर बरस रहें हों और वह तृप्त हो रही हो , उसका अंतर्मन पिघल रहा हो ......
कृष्ण तो अधीरता हरने वाले हैं मन की चंचलता ,चपलता और भटकन हरने वाले हैं ..... कृष्ण भक्ति में प्राणी मौन के संपदन पथ पर चलना सीख जाता है .....
सादगी से सम्पूर्णता
सम्पूर्णता सरलता
सरलता से योगी
योगी से एकाग्रता
एकाग्रता से तन्मयता
तन्मयता से समन्वय
समन्वय से मौन
मौन से धीरजता
धीरजता से सोच
सोच से विस्तृता
विस्तृता से भक्ति
भक्ति से प्रेम
प्रेम से स्वयं का विस्तार करना सीख जाता है यही तो कृपा है हरि की ..................
कृष्ण तो पीड़ा हरने वाले हैं उनका स्मरण मात्र से ही मन शांत होने लगता है कभी कभी पीड़ा बुद्धि हर लेती है पर ध्यान मनन और मौन से हम धीर धरते हुए शांत हो जाते हैं ...........
हर लेते हर पीड़ा मेरी
कितना शांत करते मन मेरा
कितनी भटकन को राह दिखाते
कितनी एकाग्र हो जाती
कितनी सरल हो जाती
मीठा मीठा प्रेम बहाती
बन कर तेरी प्रार्थना "

...... प्रार्थना……

Thursday, 26 December 2013

" वैराग्य से विरक्ति " या विरक्ति से वैराग्य "........

मनन ......कई बार इस पर ध्यान गया कि आखिर क्यों ...कैसे और कब ....यह भाव आ जाता या जाते हैं ....कई बार सुनने में आया कि बस ...वह वयक्ति चला गया ...कभी कमी ,कभी सब कुछ सामान्य और कभी सब कुछ भर - पूरा .....आखिर कैसी मन की कैसी मंत्रणा है जो ....परिस्थिति के अनुरूप न चल कर एकदम विमुख होता जाता है या चला जाता है .....
आखिर ये भटकन क्यों ???...ख्वाइशों का न पूरा होना ....पूर्ण रूप से हताशा या इतना उम्मीद से इतना अधिक होना कि उसके लिए जीवन में कुछ महत्व ही ना रहे ....
आखिर "वैराग्य " है क्या ...??? मन-तन -धन को छोड़ कर विमुख हो जाना ,......जरूरत से ज्यादा उपयोग में ना लाना है ...या अपनी सोच का दायरा ही बदल देना , जो जरूरतों के भावों को हवा ही ना दे .....यह भी तो एक रूप हो सकता है .....
" विरक्ति "....शायद जो अच्छी ही ना लगे ,.... जिसकी इच्छा या कामना ही ना रहे ....या उसकी जीवन में आवश्यकता ही ना रहे ...तो स्वाभाविक है कि उससे प्रेम ....अभिलाषा ...कामना ...इच्छा ...और या विश्वास ही ना रहे तो शायद विरक्ति हो जायेगी ......
पर हम तो साधारण इंसान ही हैं और माँ - पिता बनते ही भावों के भंवर में उलझ जाते हैं ....बंधन में .....पर इस राह पर भी चलते हुए ...राहें... भटक जाती है .......तो क्या भटकन अच्छी या बुरी जिम्मेदार है ....फिर अच्छे या बुरे का प्रारूप भी अलग-अलग मायनों में अलग है ....परिभाषाएं भी अलग है ...और मापदंड भी.......तो फिर क्या ?????
[बस यूँ ही एक विचार कुछ कौंधता - सा..हुआ ....]
....प्रार्थना .....

Thursday, 12 December 2013

" प्रार्थानांजली   "
प्रार्थना बन कर , जो कर रही प्रार्थना 
पा रही स्व्यं को , ख़ुद को जोड़ कर 
बन कर तेरी प्रार्थना .....
घुल रही बन कर तेरी प्रार्थना 
लक्षय सफल होता , इस जीवन का 
बन कर तेरी प्रार्थना .....
बन गयी कोमल , खो गयी तुझमें 
और क्या चाहूं , इस जीवन से 
बन कर तेरी प्रार्थना .....
एक एहसास का है फ़ासला
हुआ है एहसास , सांसो से सांसो का फ़ासला
बन कर तेरी प्रार्थना .....
किताना स्नेह् पाती हूँ अपने लिए
जो तू घुलने लगता मुझमें
बन कर तेरी प्रार्थना .....
परिन्दे बन उड़ते मेरे भाव के
जब मिलते स्नेह्-व्योम में
बन कर तेरी प्रार्थना .....
विलीनता पाती ,भार अश्रु सागर में
झर-झर बहती ,व्येग धारा बन कर
बन कर तेरी प्रार्थना .....
कितना सुखमय साथ है तेरा मेरा
एक तरफा हो चला अब ये मन मेरा
बन कर तेरी प्रार्थना .....
तू ऊँचा पर्वत शिखर सा विशाल
मैँ तलहटी की छांव में रोपी एक पौध
बन कर तेरी प्रार्थना .....
जब मुझमें माखन घुलता प्राइम का
मैँ तो मिसरी घोल लेती अपने में
बन कर तेरी प्रार्थना .....
इन नयनोँ में तुझे जड़ कर
इस आनंद से सजा लेती अपने को
बन कर तेरी प्रार्थना ...
कितना विशाल सा हो जाता
मेरी सोच का ये प्रेम का दायरा ....
बन कर तेरी प्रार्थना .....
......प्रार्थना .......

Tuesday, 1 October 2013

 मनन ......
हमारे  "  विचार " ही हमें परिभाषित करते हैं ..... अच्छे और बुरे दोनों ही हमारे मस्तिष्क में जन्म  लेंगे ....क्योंकि हम साधारण इंसान हैं ......किस दिशा में उन को आगे ले जाना है .....क्या रूप और रंग निर्धारित करना है ......किस पर और काम करना है और इस पर भी गौर करना की यह हमें किस ओर ले जायेगा .....आदि ...आदि .... हमें किस को कितनी तजरीह देनी है , यह हम पर निर्भर करता है ..जिसे हम देंगे वही हम बनेंगे .......
        हमारे विचार ही हमें साधारण से असाधारण की ओर का मार्ग प्रशस्त करते हैं ....क्योंकि एक सादा और सरल विचार ही एक ....असाधारण विचार को जन्म देता है ....इसलिए गुनना जरुरी है .......बड़े-बुजर्ग यही कहते हैं ....और करते भी आये हैं ...शायद उन लोगों का  जीवन साधारण होते हुए भी हम से अच्छा ,साथ - साथ और सकूँन से बीता ...... हमारे विचार ही हमें भगाते हैं ...और हम भागे जा रहे हैं ......  क्षणिक सुखों को मापदंड मान , जीवन का अर्थ कहते हुए ..... किस  दिशा में मालूम नहीं .....और अंत में एकाकीपन और खाली - सा आँगन निहारने को शेष रह  जाता ....
.....प्रार्थना ......
[ बस यूँ एक विचार .......]

Tuesday, 13 August 2013

एक बैचेनी है ...जो भटकाती है .....
एक दुःख है ...जो गहरा जाता है ...
एक घुटन है ...जो पंख पसार रहा है ....
एक वेदना है ....जो समा रही है .....
एक व्याकुलता है ...जो अधीर बना रही है .....
एक कल्पना है ...जो सपने बुनती है 
एक ख्वाइश है ...जो गति दे रही है .....
एक सुख है ...जो मुस्काता है .....
एक प्रेम है ......जो सबल देता है ......
एक पूर्णता है .....जो तुमसे मिला देती है .....
.....प्रार्थना ......

Friday, 28 June 2013

मनन ....
" मुक्ति ".... का बहुत ही विस्तृत अर्थ है ....तन-मन-धन से ....और सोच से समय से परे .....
संसार में रहते हुए भी इंसान मुक्ति की खोज और मुक्त रह सकता है लेकिन तब सिर्फ और सिर्फ सोच के द्वारा अपने मन को समभाव में रखकर ...आप किसी भी विषम परिस्थिति में रहतें हों , अगर आप कोशिश करें , मुश्किल है कभी नामुमकिन भी ...पर किसी से बंधे नहीं और चलते चलें ....राहगीर की भाँति ...की बस चलना ही परमोधर्म और सर्वोपरि है .......जब तक हम सोच से बँधे हैं तब तक हम गुलाम है ...आसक्त हैं ...आधीन हैं ....मोह के ...इच्छाओं के .....और हम सिर्फ एक जीव हैं जो आया -गया है ....बिना द्वंद के ....सोच के ....." मुक्त ' आप मृत्यु से नहीं वरन सोच से हो जाते हैं ......इंसान मन से नहीं मन से म्रत्यु प्राप्त करता है , तन से नहीं ...म्रत्यु तो साँसों या प्राण के आधीन है .....म्रत्यु पर विजय पाना आसान है अर्थात जब आयेगी , आप को हर हाल में स्वीकारना ही है चाहे चाहो या ना चाहो .....आप को विजय होना ही है ......पर सोच पर नहीं यह एक प्रक्रिया है , जिस के हम आधीन और लिप्त हैं .....सोच तो जीवन परयन्त्र चलने वाली प्रक्रिया है ...गतिविधि है ....जिसे हम निश्चित करते हैं .....यही एक कर्मठ मुक्ति मार्ग है .....हम इसी के साथ जीते हैं ...मारतें हैं .....अच्छा या बुरा बनाते या बनते हैं .....
म्रत्यु सोच पर निर्भर है ..और मुक्ति सोच पर आश्रित है ......म्रत्यु तन से और मुक्ति मन से .....ध्यान में जब सांस रहित हो कर और एकाकार होने लगे तो वह स्थिति तन-मन से मुक्ति ही की अवस्था है ....जहां हम सोच से गति पा जातें हैं और वह सोच तन-मन से मुक्त है .....
यह मुक्ति की सवश्रेष्ठ अवस्था है जहां इंसान बन्धनों से मुक्त है चाहे वह तन-मन-सोच से हो ......
[ बस यूँ ही एक विचार .....]
......प्रार्थना